कंपनी के अधिकारों से परे सिद्धान्त क्या है ?
Doctorine of Ultra Vires in Hindi
Doctorine of Ultra Vires in Hindi |
कंपनी के अधिकारों से परे सिद्धान्त :- Doctorine of Ultra Vires in Hindi
कम्पनी एक कृत्रिम व्यक्ति है, जो उसके दस्तावेजों / संविधान पार्षद सीमा नियम के अनुसार संचालित होता है ।
कम्पनी के पार्षद सीमा नियम में कम्पनी के उद्देश्यों का वर्णन होता है, कि कोई कंपनी किस हद तक अपने उद्देश्यों के अनुरूप कार्य कर सकती है । जब कभी कंपनी पार्षद सीमा नियम में वर्णित नियमों / कानूनों को नजर अंदाज कर अपने अधिकारों से बाहर जाकर किसी भी प्रकार के कार्य या अनुबंध करती है, तो उसे अधिकारों से बाहर (DOCTORINE of ULTRA VIRES ) माना जाता है ।
साधारण शब्दो में :- अधिकारों से परे सिद्धान्त कंपनी को उसके पार्षद सीमा नियम के उद्देश्यों वाक्य के प्रति बाध्य करती है । इसका तात्पर्य यह है, कि कंपनी केवल उन्हीं कार्यों को करेगी, जो उसके पार्षद सीमा नियम में दिए गए हैं । उसके विपरित यदि कंपनी कोई अनुबंध करे, तो उसे अधिकारों से परे का सिद्धांत माना जाता है ।
महत्वपूर्ण बिन्दु :- Important Point related to Doctorine of Ultra Vires in Hindi
1. कम्पनी के पार्षद सीमा नियम से बाहर किया जाने वाला हर अनुबंध या कार्य अधिकारों से बाहर सिद्धांत माना जायेगा । चाहे वह कार्य कम्पनी अधिनियम के अधीन वैध हो क्यों न हो ।
2. अधिकारों से बाहर या लेन देन की अवस्था में कभी भी परिशोधन नहीं किया जा सकता , चाहे सभी अंशधारी परिशोधन के लिए अनुमति ही क्यों न दे दें ।
3. जो कार्य कम्पनी के अधिकारों से बाहर है, वह कार्य करने के लिए कम्पनी बाध्य नहीं है । इस स्थिति में कोई भी व्यक्ति न्यायालय में कम्पनी से उसके अधिकारों से बाहर काम करवाने के लिए दावा नहीं कर सकती ।
4. यदि कोई कार्य कंपनी के निदेशकों के अधिकारों से बाहर है, परंतु कम्पनी के अधिकारों के अंदर है तो उस स्थिति में सभी अंशधारियों की अनुमति से विशेष प्रस्ताव के द्वारा AOA को परिशोधित किया जा सकता है ।
5. यदि AOA के बाहर जाकर निदेशकों के द्वारा कोई लेन - देन या अनुबंध किया गया है, तो उस स्थिति में विशेष प्रस्ताव पास करके AOA को संशोधित किया जा सकता है ।
Case Law
Ashbury Rly. Carriage & Iron Co. Ltd.
V.
Riche (1875) L.R. 7.H.L. 653
अधिकारों से बाहर लेनदेन का प्रभाव :- Effects of Ultra vires transaction
1. निषेधात्मकता :- अधिकारों से बाहर किए गए सभी अनुबंध पूर्णतः निरर्थक होते हैं । इस अवस्था में यदि कोई कंपनी अधिकारों से बाहर कार्य करती है तो कम्पनी का कोई भी सदस्य ट्रिब्यूनल के पास शिकायत दर्ज करा सकता है और ट्रिब्यूनल कंपनी को अधिकारों से बाहर कार्य न करने की आज्ञा देगी ।
2. प्राधिकरण एवं वारंटी के उल्लंघन का दायित्व :- निदेशक कंपनी का प्रतिनिधि होता है, इसलिए उसका ये दायित्व बनता है, कि वह कंपनी के हितों की रक्षा करते हुए कंपनी के अधिकारों के अनुरूप ही कोई लेनदेन या अनुबंध करे । परंतु कंपनी का निदेशक अपनी स्वेच्छा से सभी नियमों को जानते हुए भी किसी बाहरी व्यक्ति से अनुबंध का लेता है और यह अनुबंध अधिकारों से बाहर साबित होता है, तो इस स्थिति में प्राधिकरण की वारंटी के उल्लंघन की स्थिति में सभी प्रकार का दायित्व निदेशक का होगा ।
3. निदेशक का व्यक्तिगत दायित्व :- यदि निदेशक अपने अधिकारों से बाहर जाकर कोई अनुबंध करता है या फिर कंपनी के पैसे को अधिकारों से बाहर जाकर विनिवेश करता है, तो नुकसान का पूरा दायित्व व्यक्तिगत रूप से निदेशक का होगा ।
4. अधिकारों से बाहर अनुबंध :- यदि कोई अनुबंध पूर्ण रूप से कंपनी के अधिकारों से बाहर है, तो दोनो पक्षों पर किसी भी प्रकार की दायित्व का दबाव नहीं पड़ेगा ।
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